भारतीय मुस्लिम महिलाएं बनीं सुधार की अगुआ

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने गत 22 अगस्त 2017 को ऐतिहासिक और अभूतपूर्व फैसला देते हुए भारतीय मुस्लिम समाज में प्रचलित एक बार में तीन तलाक की प्रथा को असंवैधानिक करार देते हुए सरकार को इस दिशा में छह माह के भीतर कानून बनाने के निर्देश दिए हैं। भारत ही नहीं, दुनिया के उन मुस्लिम देशों के लिए भी यह फैसला महत्वपूर्ण है, जहां तीन तलाक का रिवाज है। हालांकि अरब देशों सहित कुछ मुस्लिम देशों में यह प्रथा पहले ही समाप्त की जा चुकी है। इस प्रकार इस फैसले से 9 करोड़ भारतीय मुस्लिम महिलाओं को बड़ी राहत मिली है। अनेक महिलाएं ऐसी थीं, जिनका जीवन इस प्रथा के कारण बर्बाद हो गया था। गैर-मुस्लिम महिलाओं की तरह उन्हें भरण-पोषण की पात्रता नहीं थी। इस संबंध में शायरा बानो ने सबसे पहले सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी, क्योंकि वे तीन तलाक की कुप्रथा की शिकार हुई थीं। उनके पति ने दो वर्ष पहले उन्हें तीन तलाक कहकर तलाक दे दिया था। इसके बाद अन्य महिलाओं ने भी इसी प्रकार से याचिकाएं दायर की थीं।
भारतीय मुस्लिम समाज में, खासकर महिलाओं के कल्याण की दिशा में यह फैसला काफी महत्वपूर्ण है और इससे अन्य सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने की दिशा में भी मार्ग प्रशस्त हो रहा है। आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड ने फैसले का स्वागत किया है, लेकिन जमीयत उलेमा-ऐ-हिन्द ने कहा है कि यह समान नागरिक संहिता को लागू करने जैसा है। पर्सनल लाॅ बोर्ड इसलिए खुश है और इसे अपनी जीत बता रहा है, क्योंकि कोर्ट ने मुस्लिम समाज के पर्सनल लाॅ को यथावत रखा है। सुनवाई के दौरान बोर्ड ने कहा था कि वह काजियों को एडवाइजरी जारी करेगा कि वे तीन तलाक पर महिलाओं की भी राय लें और उसे निकाहनामे में शामिल करें। केंद्र सरकार ने भी कोर्ट को दिए अपने हलफनामे में कहा था कि वह इस प्रथा को वैध नहीं मानती और इसे जारी रखने के पक्ष में नहीं है। हालांकि पर्सनल लाॅ बोर्ड आगामी 10 सितंबर को भोपाल में एक बैठक कर फैसले पर चर्चा कर रणनीति तैयार करेगा।
सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ ने तीन-दो के बहुमत से यह फैसला सुनाया था, जिसमें पांच धर्मों के जज शामिल थे। लेकिन निकाह हलाला और बहुविवाह प्रथा पर कोई फैसला नहीं किया है, जबकि ये मुद्दे भी याचिकाकर्ताओं की अपील में शामिल हैं। चीफ जस्टिस जेएस खेहर ने कहा है कि तलाक-ए-बिद्दत संविधान के आर्टीकल 14, 15, 21 और 25 का वाॅयलेशन नहीं करता। यहां यह उल्लेखनीय है कि तलाक-ए-बिद्दत का अर्थ तीन बार तलाक कहकर दिया गया तलाक है, जबकि तलाक-ए-सुन्नत इससे भिन्न है और इसकी प्रक्रिया अलग है। भारत में तलाकशुदा पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या अधिक है। इनमें भी मुस्लिम महिलाओं की संख्या सबसे ज्यादा है।
कुरान और हदीस में तीन तलाक का कोई उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार से मुस्लिम पर्सनल लाॅ में भी इसे कुप्रथा माना गया है। स्पष्ट है कि भारत की मुस्लिम महिलाएं कुरीतियों के कारण शोषण का शिकार हैं। उन्हें अपने समाज में वह ओहदा, हक और सम्मान हासिल नहीं है, जो पुरुषों को प्राप्त है। इसकी तुलना में भारत में हिन्दू महिलाओं की या अन्य गैर-मुस्लिम महिलाओं की स्थिति काफी अच्छी है और वे न-सिर्फ खुली हवा में सांस ले रही हैं, बल्कि अपना जीवन, अपनी खुशी, अपनी स्वतंत्रता, अपनी निजता, अपने मौलिक अधिकार एवं अपनी इच्छा के अनुसार जी रही हैं। हम अपने सौ साल के इतिहास को देखें तो हिन्दू समाज ने सामाजिक विकृतियों को समाप्त करने की दिशा में सुधार के अनेक कदम उठाए हैं, जिनमें महिलाओं को तलाक की स्थिति में भरण-पोषण भत्ता मिलता है, हमारे यहां सती प्रथा समाप्त की जा चुकी है। महिलाओं को पैतृक संपत्ति में वाजिब हक प्राप्त है। हमारे यहां काफी हद तक पर्दा प्रथा समाप्त हो चुकी है। हमारे समाज में बहुविवाह नहीं होते हैं। विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए समाज काफी आगे बढ़ चुका है। लड़कियां और महिलाएं अपनी इच्छा का पहनावा अपना सकती हैं। वे आधुनिक जीवन से पूरी तरह जुड़ चुकी हैं। इसी प्रकार से स्त्री-पुरुष का भेद काफी हद तक समाप्त हो चुका है। लोग लड़कियांे की शिक्षा के प्रति लालायित हैं।
इसलिए मुस्लिम समाज को भी भारतीय समाज की मुख्य धारा में शामिल होना चाहिए और इस्लाम तथा कुरान की आड़ लेकर धर्म की मनमानी व्याख्या नहीं करनी चाहिए। धार्मिक कठमुल्लों और धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले ठेकेदारों के खिलाफ अब पूरे मुस्लिम समाज को लामबंद हो जाना चाहिए। भारत के 17 करोड़ मुसलमान, जिनमें आधी महिलाएं हैं, उन्हें शिक्षित कर समाज की मुख्य धारा में जोड़ना है। हमारे देश के मुसलमान हमारी आबादी के अंग हैं और वे सभी हमारी विभिन्न संस्कृतियों के साथ मिलजुलकर रह रहे हैं। धार्मिक और सियासी लोगों का काम है कि वे भारत की बहुसांस्कृतिक छवि को मजबूत बनाएं, न कि अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए इसे नष्ट करें।
यदि हिन्दू-मुस्लिम या अन्य किसी समाज में कोई परंपरा 1000 साल, 1400 साल, 2500 अथवा 5000 साल से चल रही है, तो इसका यह अर्थ नहीं कि वह यदि गलत है, तो उसे बदला नहीं जा सकता अथवा समाप्त नहीं किया जा सकता। वैज्ञानिक युग में, जबकि हम आधुनिक जीवन जी रहे हैं--हमें अपनी उन परंपराओं, नियमों, कानूनों, आस्थाओं, धारणाओं, मान्यताओं और कुप्रथाओं को नष्ट करना होगा, जो हमारे समाज और हमारी आगामी पीढ़ी एवं भविष्य को तिल-तिलकर बेइंतहा तकलीफ पहुंचा रही हैं। और वह समय आ चुका है। जिंदा कौमें 5 साल इंतजार नहीं करतीं। हमें जब जागो तब सबेरा की तर्ज पर समाज को बदलने के लिए वह कदम उठाना चाहिए, जो या तो हमने उठाए नहीं हैं, या फिर हम यह मानकर चल रहे थे कि यह कदम हम उठा नहीं सकते हैं।
अभी भी हमारे हिन्दू समाज में कुरीतियों और पाखंडों की पूरी तरह से समाप्ति नहीं हुई है। हम उत्सवधर्मी तो हैं, लेकिन अपने अनावश्यक कर्मकांडों और पाखंडों से भी ओतप्रोत हैं। जब हम यह कहते हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं होता है कि यह कहकर हम अधार्मिक या नास्तिक हो गए हैं। वास्तव में हमें सही अर्थों में-- धर्म, अध्यात्म, नैतिकता, ईमानदारी, सच्चाई, सत्य, अहिंसा और आचरण की पवित्रता--तथा पाखंड के बीच भेद करना होगा। असल में यह सभी चीजें गड्ड-मड्ड हो रही हैं, जिन्हें अलग करने की जरूरत है।
सुप्रीम कोर्ट ने मौजूदा फैसला देते हुए एक नए सामाजिक सुधार की क्रांति की है। अब केंद्र सरकार का दायित्व है कि वह सुप्रीम कोर्ट के आदेश के प्रकाश में छह माह के अंदर तीन तलाक पर कानून बनाए और भारत की 9 करोड़ मुस्लिम महिलाओं के लिए एक सम्मानजनक और सुरक्षित जीवन सुनिश्चित करे। अब वह समय भी आ गया है, जब भारतीय जनता पार्टी को इस पर राजनीति करने की बजाय समाज को जोड़ने के लिए अभियान शुरू करना चाहिए और यह दिखाना चाहिए कि यह पार्टी मुसलमानों के खिलाफ नहीं है। ध्रुवीकरण की राजनीति से बचने की आवश्यकता है। यह बात कांग्रेस सहित अन्य गैर-भाजपा दलों पर भी उतनी ही लागू होती है।
सरकार चाहे तो समान नागरिक संहिता के कानून पर भी विचार कर सकती है। यदि देश में सभी नागरिकों के लिए यह संहिता समानता के आधार पर बनाई जा सकती है, तो यह और बड़ा ऐतिहासिक काम होगा और इससे सभी समाजों का भला हो सकता है। यदि हमारी नीयत में सच्चाई है तो जाहिर है कि हमारे आचरण की पवित्रता भी बनी रहेगी। इस दृष्टि से यदि यह कानून बनाया जाता है, तो उसे धर्म और राजनीति के चश्मे से नहीं देखना चाहिए।