ज्यों-की-त्यों धर दीन्हि चदरिया

महेंद्र सेठिया जी एक बहुत अच्छेअख़बार-मालिक, पत्रकार, समाजसेवी, शिक्षाविद और इस सबसे ऊपर, एक बहुत अच्छे इंसान के रूप में सदैव याद किए जाएंगे।मैं नईदुनिया के सान्निध्य में 1982 में आया।तभी से उनसे जुड़ा रहा। पहली बार मेरे मित्र मनोहर बोथरा जी ने उनसे मुलाक़ात कराई। हमारा बचपन नईदुनिया को पढ़ते हुए बीता।इस समाचार पत्र में कार्य करने का आनंद तो था ही, रोमांच भी था।

1987 में नईदुनिया, इंदौर का भोपाल संस्करण प्रारंभ हुआ।तब नईदुनिया के सभी मालिक—अभय छजलानी जी, महेंद्र सेठिया जी, अजय छजलानी जी और विनय छजलानी जी—भोपाल आए।मैं रिपोर्टिंग में था, किंतु रात में सिटी एडिशन के पेज भी बनवाता था। इसी दौरान मुझे महेंद्र सेठिया जी ने पेज का लेआउट बनाना सिखाया।वे मालिक थे, लेकिन इस कला में भी माहिर थे। इतना ही नहीं, उन्होंने ब्रोमाइड पर फेविकोल लगाकर पेज पर चिपकाने की पेस्टिंग कला भी सिखाई। वे कहते थे कि एक पत्रकार को अख़बार का सारा काम आना चाहिए।
1992 में गुना जाने के पहले मुझे भोपाल से उज्जैन भेजा गया, क्योंकि सिंहस्थ शुरू होने वाला था।चूँकि मैं उज्जैन का मूलनिवासी था, अत: मुझे सिंहस्थ शुरू होने के पहले से सिंहस्थ समाप्त होने तक उज्जैन में रिपोर्टिंग के लिए तैनात किया गया।पूरे दो माह । यहाँ नईदुनिया के कार्यालय में श्री अवंतीलाल जैन और श्री अरुण जैन के साथ पहली बार बहुत क़रीब आकर कार्य किया। अवंतीलाल जी स्वतंत्रता सेनानी तो थे ही, मालवा क्षेत्र के दिग्गज पत्रकार भी थे।अतः उनसे भी बहुत-कुछ सीखने का अवसर मिला।महेंद्र सेठिया जी और नईदुनिया के प्रख्यात फोटोग्राफर श्री शरद पंडित के साथ उज्जैन में सिंहस्थ के कवरेज के अनमोल क्षण मेरे मन से कभी विस्मृत नहीं होंगे।
1992 से 1994 तक मैं गुना में नईदुनिया के एक और दैनिक मध्यक्षेत्र का सम्पादक रहा।मैं भोपाल में नईदुनिया, इंदौर के ब्यूरो ऑफ़िस में श्री मदन मोहन जोशी और श्री उमेश त्रिवेदी के साथ कार्य कर रहा था। मुझे गुना जाने का आदेश हुआ।श्री महेन्द्र सेठिया और श्री अजय छजलानी अक्सर गुना का दौरा करने आते थे।वहाँ दोनों के साथ बहुत घनिष्ठ रूप से काम करने का अवसर मिला। यहाँ मैंने दोनों के साथ काफ़ी कुछ सीखा।हिंदी अख़बारों में संपादक दो तरह की भूमिकाएँ निभाता है।एक संपादक की और दूसरी प्रबंधन की, क्योंकि वह मैनेजमेंट का पार्ट भी होता है। यहाँ मैंने नईदुनिया के दोनों मालिकों से काफ़ी गुर सीखे।नईदुनिया के प्रबंधन का सबसे बड़ा गुण है उसका नैतिक पक्ष।आज की पत्रकारिता के इस दौर में हम इस नैतिक पक्ष की कल्पना भी नहीं कर सकते।इसलिए मैं हमेशा यह कहता आया हूँ कि मैंने नईदुनिया में रहकर बहुत बौद्धिक आनंद लिया।ज़मीन से जुड़ी पत्रकारिता के तेवर भी यहीं पर सीखें।इसकी भी आज हम कल्पना नहीं कर सकते।मैं यह नहीं कहता कि आज सब कुछ ख़राब हो रहा है। आज भी अच्छा कार्य देखने को मिलता है। लेकिन समय और तकनीकी के परिवर्तन के बाद परिस्थितियों में भी परिवर्तन आ जाता है।फिर बाज़ारवाद ने वातावरण को बिलकुल बदल कर रख दिया है।
गुना में उनके साथ भोजन का भी ख़ूब आनंद लिया।कभी-कभी तो वे ख़ुद खाना बनाने के कार्य का निर्देशन करते थे। गुना में एक बार वे मुझे अपने परिवार के साथ रात को सिनेमा देखने ले जाने लगे।मैंने कहा—“सर, अख़बार देखना है।”
वे बोले—“तुमने एक सक्षम टीम खड़ी कर दी है, वह सब देख लेगी। अब ऐसे अवसर कब आएंगे !” मैं निरुत्तर था।चल पड़ा।उनके साथ काम करने में उत्साह, उमंग और आनंद का अनुभव होता था।
देश की आज़ादी के समय, नईदुनिया के जन्म से लेकर नईदुनिया के पहले विभाजन, याने 1991 तक ही नहीं, बल्कि 1995 तक इस समाचार पत्र का स्वर्णकाल था। नईदुनिया में मैंने 11 वर्ष कार्य किया, लेकिन महेंद्र भैया ने कभी यह एहसास नहीं कराया कि वे नईदुनिया के मालिकों में से एक हैं।एकदम सहज-सरल-उदार-ज़िंदादिल।उन्हें कभी-कभी ग़ुस्सा आता था, लेकिन तुरंत ही ठंडा भी हो जाता था।और वे इतने सहज और सरल हो जाते थे कि लगता था कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं।उनसे कुछ दिनों से चर्चा नहीं हुई थी।भोपाल, इंदौर, उज्जैन और ख़ासकर गुना में उनके साथ बिताए दिन कभी भुलाए नहीं जा सकेंगे।मैंने अपने गुरु श्री मदन मोहन जोशी की पत्रकारिता पर एक वृहद ग्रंथ लिखा है।उसमें श्री जोशी के निकट संपर्क में रहे विभिन्न क्षेत्रों के दिग्गजों, पत्रकारों और गणमान्य नागरिकों से जोशी जी के बारे में टिप्पणियां भी प्रकाशित की हैं।इनमें से एक महेंद्र जी भी हैं। यह बात दो वर्ष पूर्व की है, तब वे बहुत बीमार थे। लेकिन उन्होंने अपने विचार मुझे पूरी दिलचस्पी के साथ लिखवाए।
नईदुनिया के—जागरण, कानपुर के हाथों बिकने के बाद मैंने महेंद्र भैया से एक बार फ़ोन पर कहा कि—“सर, यह अत्यंत अकल्पनीय और दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई है।यह पत्रकारिता में वज्रपात से कम नहीं है।सर, मैं इस थ्योरी को नहीं मानता कि शीर्ष संस्थाओं का अपना एक समय होता है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया एक शताब्दी से अधिक समय से शीर्ष पर है।” उन्होंने सहमति व्यक्त की। फिर मैंने उनसे कहा कि—“सर, आप नईदुनिया को टेकओवर कर लेते !” वे बोले—“पंकज, संभव नहीं था।” नईदुनिया की दूसरी पीढ़ी के इस आधार स्तंभ की वाणी में मुझे व्यथा अनुभव हुई।
अपने भाई श्री प्रेम सेठिया के साथ उन्होंने इंदौर में शिशुकुंज इंटरनेशनल स्कूल की स्थापना की, जो आज इंदौर के श्रेष्ठ स्कूलों में से एक है।इस प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में भी उन्हें अपने इस अप्रतिम योग के लिए याद किया जाएगा।वे इस दुनिया को छोड़कर बहुत जल्दी चले गए, इसकी उम्मीद नहीं थी।परन्तु हमारे स्मृति पटल पर वे सदैव छाए रहेंगे।
विनम्र-सादर श्रद्धांजलि।