ज्यों-की-त्यों धर दीन्हि चदरिया

भोपाल। पंजाब में सुनील जाखड़, गुजरात में हार्दिक पटेल और अब दिल्ली में कपिल सिब्बल ने भी कांग्रेस की नैय्या से किनारा कर लिया।सुना था वे कांग्रेस की नैया को पार कराने वाले थे, किंतु इन्होंने उसे किनारे लगाने के बजाय स्वयं किनारा कर लेना अधिक पसंद किया।सिब्बल उप्र से सपा के टिकट पर राज्यसभा में जा रहे हैं ।समाजवादी पार्टी के हिसाब से चलो तो ठीक है यह। क्योंकि उन्हें भी एक अच्छे वक़ील साहब की आवश्यकता थी।पैरवी कराने की दृष्टि से कांग्रेस को फ़िलहाल कोई ख़तरा नहीं है, क्योंकि कांग्रेस के पास अभी भी अच्छे-से-अच्छे वक़ील साहब की फ़ौज है।सिंघवी, तुलसी, तनखा आदि।पर समस्या दूसरी है।असल में पूरे देश में कांग्रेस छोड़कर नेतागण दूसरी पार्टियों में जा रहे हैं। सिर्फ़ पश्चिम बंगाल अपवाद है।वहाँ कब-कौन भाजपा सांसद या भाजपा विधायक तृणमूल कांग्रेस में चला जाएगा, कोई भरोसा नहीं। लेकिन विकट समस्या कांग्रेस के साथ है।अगले लोकसभा चुनाव, याने 2024 के पहले शायद ही देश के किसी राज्य में कांग्रेस की सरकार बची रहेगी।ये क्या हो रहा है कांग्रेस में ? क्या पार्टी में बदलाव आ रहा है, व्यापक बदलाव।उदयपुर चिंतन बैठक से तो लगभग यही लग रहा है।राहुल आगामी 29 जून को 52 के हो जाएँगे।प्रियंका गत 12 जनवरी को 50 की हो गईं।मतलब दोनों अब उम्रदराज़ हो रहे हैं।सोनिया 75 की हैं।इसी वर्ष 9 दिसंबर के वे 76 वर्ष की हो जाएंगी।
एक ज़माने में मध्य प्रदेश में युवा कांग्रेस के कार्यकर्ता मूल कांग्रेस को बूढ़ी कांग्रेस कहा करते थे, क्योंकि वे स्वयं तो युवा कांग्रेस में थे न ! बूढ़ी कांग्रेस, युवा कांग्रेस, छात्र कांग्रेस, महिला कांग्रेस। आज की कांग्रेस को युवा कांग्रेस तो बनाया नहीं जा सकता, क्योंकि इसके दोनों नेता—राहुल-प्रियंका स्वयं 50 पार हैं।संभवतः यही वजह है कि राहुल इसे अधेड़ कांग्रेस बनाने पर तुले हैं।अधेड़ कांग्रेस बनने के बाद बूढ़ी कांग्रेस के बुजुर्गों के सामने सिवाय पार्टी छोड़ने के और कोई विकल्प नहीं रहेगा।सो, वही हो रहा है।क्योंकि इनके यहाँ भाजपा की तरह कोई मार्गदर्शक मंडल भी नहीं है कि वहाँ बैठकर सुस्ता लें।बड़ी समस्या है।क्या होगा कांग्रेस का ? राजनीतिक विचारकों का मत है कि विचारधारा का विसर्जन बहुत पहले हो चुका है।कुछ लोगों ने यह कहकर एक चिंता और बढ़ा दी है कि कांग्रेस पर वामपंथियों ने क़ब्ज़ा कर लिया है। ‘फूल छाप’ कांग्रेसी पहले से ही कांग्रेस में घुसे हुए हैं।यानी कांग्रेस वामपंथियों और दक्षिणपंथियों के शिकंजे में है।इसलिए राहुल गांधी उससे पार्टी को बाहर निकालने के लिए छटपटा रहे हैं।फूल माने कमल।और कमल माने भाजपा।गांधी-नेहरू युग में वामपंथियों और समाजवादियों ने कांग्रेस में रहते हुए अपने अलग फ़ोरम भी बना रखे थे। गांधीजी इसके पक्ष में नहीं थे।वे चाहते थे कांग्रेस एक रहे।राहुल गांधी भी यही चाहते होंगे, इसमें संदेह नहीं है।परंतु कांग्रेस के भीतर अलग-अलग ग्रुपों ने संदेह पैदा कर दिया है।जैसे ग्रुप-23, हालाँकि सुना है उसमें से कई लोग बाहर आ गए हैं और अब वह मात्र आठ-दस लोगों का ग्रुप ही बचा है।इन्दिरा गांधी के ज़माने में युवा तुर्क हुआ करते थे—चंद्रशेखर, कृष्णकांत, रामधन, मोहन धारिया और एसएम कृष्णा।मगर ये आज के जैसे नेता नहीं थे।ये बल्लम थे, माने धाकड़।तभी तो इनमें से एक प्रधानमंत्री बना और एक उप-राष्ट्रपति।आज वह कांग्रेस है, जिसका नेतृत्व करने वालों को इन पदों के लिए एड़ी से चोटी का ज़ोर लगाना पड़ रहा है।जबकि पहले ये पद कांग्रेस में रहकर कांग्रेस को ही टक्कर देने वालों को मिल जाया करते थे।
लगता है राहुल गांधी अब अनजान चेहरों को आगे ला रहे हैं।राज्यों और अखिल भारतीय स्तर पर जो नियुक्तियां हो रही हैं, उससे यही लगता है।वे अपने आस-पास बहुत बुजुर्ग लोगों को रखना नहीं चाहते।ऐसा प्रायः हर जगह होता है, लेकिन राजनीतिक संगठन में ऐसा करना ख़तरे से ख़ाली नहीं है।