ज्यों-की-त्यों धर दीन्हि चदरिया

भोपाल। व्यक्तिपूजा, आडंबर और पाखंड के कारण हमारी संस्कृति, परंपरा, विधान और नियम खंड-खंड हो चुके हैं। गत 30 मई 2022 को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की उज्जैन यात्रा थी, जहाँ उन्हें महाकाल के मंदिर में जाकर भोलेनाथ के दर्शन करना थे।इसके लिए राज्य सरकार और मंदिर प्रशासन ने मंदिर परिसर के अधिकतर नियमों को सुरक्षा की आड़ लेकर ताक पर रख दिया और राजशाही तथा सामंतशाही के दर्शन भी कराए।सबसे पहले मंदिर में सुरक्षा-रिहर्सल हुई।फिर परिसर में कारपेट बिछा।कारकेट को परिसर तक आने की अनुमति दी गई।राष्ट्रपति के परिवार ने सामान्य वस्त्रों में मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश कर लिया ! जबकि मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करने के लिए स्त्री और पुरुषों को विधान के अनुसार वस्त्र ग्रहण करना चाहिए था।
मुझे समझ में नहीं आता कि अपनी सनातन परंपरा को तोड़कर हम एक नई परंपरा क्यों स्थापित करना चाहते हैं ? मध्य प्रदेश के मंदिरों के लिए यह विधान क्यों नहीं बन सकता कि नियम सबके लिए बराबर होंगे।यदि ऐसा कर दिया तो उससे सुरक्षा को ख़तरा कैसे उत्पन्न हो जाएगा ? किसी भी नियम को तोड़ने के पीछे हमारे पास हमेशा सबसे बड़ा एक बहाना यह होता है कि वीआइपी सुरक्षा से छेड़-छाड़ नहीं की जा सकती ! करोड़ों लोग रोज़ मंदिरों में दर्शन करते हैं, कभी उनकी सुरक्षा के लिए ऐसा सोचा गया ? उनके लिए तो नियम सामने रख दिए जाते हैं। मेरी बात को धर्म, जाति, पार्टी और विचारधारा से हटकर सोचा जाए कि क्या यह उचित है ? उज्जैन में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, दरअसल इसका एक लंबा इतिहास है।
यदि राष्ट्रपति राज्य सरकार का प्रोटोकॉल छोड़कर महाकाल मंदिर के प्रोटोकॉल को स्वीकार करते, तो उनकी एक और अच्छी छवि बनती और समाज में भी बहुत अच्छा संदेश जाता है कि  सत्ता में बैठे लोग सिर्फ़ शान-शौक़त नहीं चाहते, वे नियमों का पालन करना भी जानते हैं।
पर वाक़ई शर्मनाक है।हमारे यहाँ के जन प्रतिनिधि सुविधाओं के भोग में आकंठ डूबे हैं।इन्हें यूरोप के कुछ देशों के शासनाध्यक्षों से प्रेरणा लेनी चाहिए, जो सादा जीवन जीते हैं और हमारे यहाँ एक सरपंच और पार्षद भी बड़ी गाड़ी और चार चमचों के बिना नहीं चलता।ऊपर से तुर्रा यह कि ये लोग लोकसेवक भी हैं। सशुल्क समाज सेवा कर रहे हैं ! और दूसरों को नि:स्वार्थ भाव से, निःशुल्क भाव से समाज सेवा के लिए प्रेरित करते हैं।यदि ये जनसेवक हैं, तो इन्हें इस तरह की शानशौक़त में रहना ही नहीं चाहिए।किंतु ज्योतिरादित्य सिंधिया ने तो भोपाल में अपने सरकारी बंगले को राजमहल की तरह बनवा लिया है।पर वे अकेले नहीं हैं, प्रजातंत्र के चारों खम्भों को इसका चस्का लगा हुआ है।मीडिया (सभी नहीं) स्वयं चम्मच बना इनके पीछे-पीछे घूमता रहता है।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इन दिनों सार्वजनिक रूप से हाथठेला चलाकर घर-घर से बच्चों के लिए खिलौने एकत्र कर रहे हैं, ताकि आंगनवाड़ी के बच्चे इनसे खेलें, जिनके पास यह उपलब्ध नहीं हैं।यह नवाचार अच्छी बात है।लेकिन क्या इस प्रकार के कार्य प्रदेश का प्रत्येक जन प्रतिनिधि, लोक सेवक, समाज सेवी और आमजन नहीं कर सकता ? क्या इसे दिनचर्या का अंग नहीं बनाया जा सकता ? ये विचारणीय है।समाज में आज भी बहुत से लोग ऐसे हैं, जो अपने-अपने स्तर पर ज़रूरतमंद लोगों की सहायता करते हैं, लेकिन इसे जताते नहीं हैं।वे इन जन प्रतिनिधियों की तरह अस्पताल में मरीज़ों को फल वितरित कर अपना फ़ोटो नहीं छपवाते। हमारे यहाँ तो जनप्रतिनिधि चौराहे पर सरेआम पुतला जलाकर भी फ़ोटो छपवा लेते हैं और फ़ोटो खींचने वाले फ़ोटो भी खींच लेते हैं।छापने वाले तो इतने महान हैं कि छाप भी देते हैं, क्योंकि बाद में यह मामला विज्ञापन में समायोजित हो जाता है।