तपस्विनी अनसूयाजी का सीताजी को प्रेमोपहार देना
अनसूया शब्द से अर्थ निकलता है सू धातु से यह शब्द बनता है। सू धातु का अर्थ है पैदा करना, जन्म देना, निष्पन्न करना इत्यादि। सोमरस का उत्पादन करने वाले याग, यज्ञ आदि क्रतुओं को इसी अर्थ में सूय कहते हैं। उदाहरण स्वरूप श्रीराम ने राजसूय यज्ञ किया था। जो उत्पन्न (पैदा) कर सकता है वह सूय है तथा जो पैदा नहीं कर सकता है वह असूय बनता है। अत: स्पष्ट है कि अनसूया को अर्थ है जो पैदा करने की क्षमता से वंचित नहीं है। उसमें ईर्ष्या, डाह, द्वेष से रहित है। अनसूयाजी प्रजापति कर्दम और देवहुति की नौ कन्याओं में से एक तथा मुनि अत्रि की पत्नी थी। शकुन्तला की एक सखी का नाम भी अनसूया था जिसका इस आलेख में कोई प्रसंग नहीं है। अनसूयाजी की पति भक्ति अर्थात् सतीत्व का तेज इतना अधिक था कि उसके कारण आकाश मार्ग से जाते हुए देवताओं को उनके प्रताप तेज का अनुभव होता था। इसी कारण भारतीय पौराणिक शास्त्रों में उन्हें सती अनसूया के नाम से जाना जाता है। आलेख में अनसूयाजी की पतिव्रता भक्ति तथा सीताजी के उनके पास जाने का उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने का रोचक प्रसंग है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार अनसूयाजी के तीन पुत्र हैं- दत्तात्रेय (ब्रह्म-विष्णु और महेश तीनों का एक रूप), दुर्वासा और अति सौम। इसके अतिरिक्त अर्यमा नामक एक पुत्र और अमला नाम की पुत्री भी उनकी संतान है। सतत् दो जन्मों में अनसूयाजी मुनि अत्रि की पत्नी रही तथा पाँच सन्तानों की माँ भी थी।
एक प्रसंगानुसार एक बार ब्रह्माजी, विष्णु और महेशजी उनकी गोद में बच्चे बनकर रहे थे। वह प्रसंग पौराणिक कथाओं में प्राप्त होता है- सती अनसूयाजी उस समय आदर्श पतिव्रता के रूप में ख्याति के शिखर पर प्रसिद्ध थी। स्वर्ग में सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती के मन में इनके प्रति ईर्ष्या उत्पन्न हो गई थी और इन तीनों ने अपने पतियों ब्रह्माजी, भगवान विष्णु और शिवजी को अनसूयाजी के आश्रम भेज दिया। वे तीनों अनसूयाजी की सतीत्व की परीक्षा लेने आए थे। इन तीनों का आगमन होने पर अनसूयाजी ने उनका बड़ा आदर श्रद्धापूर्वक सम्मान किया। उन तीनों ने ब्राह्मण बनकर उनसे परीक्षा लेने के लिए निर्वसन होकर भोजन कराने का कहा। अनसूयाजी के लिए बड़ा ही धर्म संकट उत्पन्न हो गया। वे साक्षात् सती और पतिव्रता थी अत: उन्होंने अपनी तपस्या की शक्ति (बल) पर तीनों देवताओं को शिशुओं के स्वरूप में परिवर्तन कर दिया तथा बड़े ही लाड़-प्यार से उन्हें भोजन करवाया। जब सरस्वती, लक्ष्मीजी और पार्वतीजी को यह बात ज्ञात हुई तो वे सती अनसूयाजी के आश्रम गईं। वहां आश्रम में जाकर देखा कि वे (तीनों) उनके पतियों (शिशुओं) को झूला झूला रही हैं। यह दृश्य देखकर वे तीनों बहुत शर्मिंदा हो गईं और अनसूयाजी से पति की भिक्षा माँगकर उन्हें वापस ले गईं। यह प्रसंग अपने आपमें अनसूयाजी का अनुपम है तथा शिक्षा देता है कि असूया पर विजय सती-पतिव्रता नारी कर सकती है।
भरतजी की श्रीरामजी से भेंट के पश्चात् वे नन्दिग्राम गए तथा श्रीरामजी की चरण पादुकाओं को राज्य पर अभिषिक्त कर निवेदनपूर्वक राज्य का कार्य आरम्भ कर दिया। इधर श्रीरामजी सीता और लक्ष्मण वहाँ से चल दिए। वहाँ से चलकर मुनि अत्रि के आश्रम पर पहुँचकर श्रीराम ने उन्हें प्रणाम किया तथा मुनि ने उन्हें पुत्र की भाँति स्नेह किया। मुनि अत्रि ने स्वयं श्रीराम का आतिथ्य-सत्कार करके लक्ष्मणजी और सीताजी को सत्कारपूर्वक सन्तुष्ट किया। उन्होंने अपनी तापसी एवं धर्मपरायणा पत्नी महामना अनसूया को कहा- देवी विदेहनन्दिनी सीता को सत्कारपूर्वक हृदय से लगाओ। तदनन्तर उन्होंने श्रीराम को धर्मपरायण तपस्विनी अनसूयाजी का परिचय देते हुए कहा- एक समय दस वर्षों तक वर्षा नहीं हुई उस समय जब सारा जगत निरन्तर दग्ध होने लगा तब इन्होंने उग्र तपस्या, कठोर नियमों और तप के प्रभाव से फल-मूल उत्पन्न किए और मन्दाकिनी की पवित्र धारा बहा दी। साथ ही साथ इन्होंने दस हजार वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या करके अपने श्रेष्ठ व्रतों के प्रभाव से ऋषियों-मुनियों के समस्त विघ्नों का निवारण भी किया है। ये अनसूया देवी तुम्हारे लिए माताजी की भाँति पूजनीय हैं।
तामिमां सर्वभूतानां नमस्कार्यां तपस्विनीम्।
अभिगच्छतु वैदेही वृद्धामक्रोधनां सदा।।
वाल्मीकिरामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग ११७-१३
ये सम्पूर्ण प्राणियों के लिए वन्दनीया है। क्रोध तो इन्हें कभी छू भी नहीं सका है। विदेहनन्दिनी सीता इन वृद्धा अनसूया देवी के पास जाएं।
श्रीराम ने सीताजी से कहा कि राजकुमारी महर्षि अत्रि के वचन तो तुमने सुन ही लिए हैं अब अपने कल्याण के लिए तुम शीघ्र ही इन तपस्विनी देवी के पास जाओ। यह सुनकर सीताजी अनसूयाजी के पास गईं। वृद्धावस्था होने के कारण अनसूयाजी का शरीर शिथिल हो गया था तथा शरीर में झुर्रियाँ पड़ गई थी। सीता ने उनके निकट जाकर शान्त भाव से अपना नाम बताया और पतिव्रता अनसूयाजी को प्रणाम किया। सीताजी ने दोनों हाथ जोड़कर उनका कुशल मंगल समाचार पूछा। उन्होंने सीता को देखकर कहा- सीते सौभाग्य की बात है कि तुम धर्म पर ही दृष्टि रखती हो। बन्धु-बान्धवों को छोड़कर उनसे प्राप्त होने वाली मान-प्रतिष्ठा परित्याग करके तुम वन में श्रीराम का अनुसरण कर रही हो, यह बड़े सौभाग्य की बात है।
दु:शील: कामवृत्तो वा धनैर्वा परिवर्जित:।
स्त्रीणामार्यस्वभावानां परमं दैवतं पति:।।
वाल्मीकिरामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग ११७-२४
पति यदि बुरे स्वभाव का, मनमाना व्यवहार (बर्ताव) करने वाला अथवा धनहीन ही क्यों न हो, वह उत्तम स्वभाववाली नारियों के लिए श्रेष्ठ देवता के समान है।
विदेहनन्दिनी! मैं बहुत सोच-विचार के बाद कहती हूँ कि पति से बढ़कर कोई हितकारी नहीं देखती हूँ। अपनी की हुई तपस्या अविनाशी फल की भाँति वह इस लोक में और परलोक में सर्वत्र सुख पहुँचाने में समर्थ होती है। जो अपने पति पर शासन करती है, वे काम के अधीन चित्तवाली असाध्वी स्त्रियाँ इस प्रकार पति का अनुसरण नहीं करती हैं। ऐसी स्त्रियाँ अवश्य ही अनुचित कार्य में फँसकर धर्म के मार्ग से भ्रष्ट हो जाती हैं और अन्त में संसार में उन्हें अपयश की प्राप्ति होती है। अत: तुम इन पतिदेव श्रीरामचन्द्रजी की सेवा में लगी रहो- सती धर्म का पालन करो, पति को प्रधान देवता समझो और हर समय उनका अनुसरण करती हुई अपने स्वामी की सहधर्मिणी बनो, इससे तुम्हें सुयश और धर्म दोनों की प्राप्ति होगी। तपस्विनी अनसूया के इस प्रकार उपदेश देने पर किसी के प्रति दोष दृष्टि न रखने वाली सीता ने उनके वचनों की भूरि-भूरि प्रशंसा करके धीरे-धीरे इस प्रकार कहना आरम्भ किया- हे देवि! आप संसार की स्त्रियों में सबसे श्रेष्ठ हैं। आपके मुख से ऐसी बातों को सुनना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। नारी का गुरु पति ही है। इस विषय में जैसा आपने उपदेश किया है, यह बात मुझे भी पहले से विदित है। सीताजी ने कहा कि-
यद्यप्येष भवेद् भर्ता अनार्यो वृत्तिवार्जित:।
अद्वैधमत्र वर्तव्यं यथाप्येष मया भवेत।।
वाल्मीकिरामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग ११८-३
मेरे पतिदेव यदि अनार्य (चरित्रहीन) तथा जीविका के साधनों से रहित (निर्धन) होते तो भी मैं बिना किसी दुविधा के इनकी सेवा में लगी रहती।
ये श्रीरघुनाथजी परम दयालु, जितेन्द्रिय, दृढ़, अनुराग रखने वाले, धर्मात्मा तथा माता-पिता के समान प्रिय है। जब मैं पति के साथ निर्जन वन में आने-जाने लगी, उस समय मेरी सास कौसल्याजी ने मुझे जो कर्तव्य का उपदेश दिया वह मेरे हृदय में ज्यों का त्यों स्थिरभाव से अंकित है। मेरे विवाह के समय अग्रि के समीप माता के कहे हुए वचनों को सुनकर अनसूयाजी को अपार हर्ष हुआ। उन्होंने उनका मस्तक सूँघा और फिर सीताजी से इच्छानुसार वर माँगने के लिए कहा। उस समय सीताजी ने उनसे कहा- आपने अपने वचनों द्वारा ही मेरा सारा प्रिय कार्य कर दिया, अब और कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। सीताजी के ऐसा कहने पर धर्मज्ञ अनसूयाजी को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे बोली सीते- तुम्हारी निर्लोभता से मुझे विशेष हर्ष हुआ है। उसे मैं अवश्य सफल करूँगी।
इदं दिव्यं वरं माल्यं वस्त्रमाभरणानि च।
अङ्गरागं च वैदेहि महार्मनुलेपनम्।।
मया दत्तमिदं सीते तव गात्राणी शोभयेत्।
अनुरूपमसंक्लिष्टं नित्यमेव भविष्यति।।
वाल्मीकिरामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग ११८-१८-१९
यह सुन्दर दिव्य हार, यह वस्त्र, ये आभूषण यह अंगराग और बहुमूल्य अनुलेपन मैं तुम्हें देती हूँ। सीते! मेरी दी हुई ये वस्तुएँ तुम्हारे अंगों की शोभा बढ़ाएगी। ये सब तुम्हारे योग्य हैं और सदा उपयोग में लाई जाने पर निर्दोष एवं निर्विकार रहेंगी।
अनसूयाजी की आज्ञा से धीर स्वभाव की यशस्विनी सीताजी ने उस वस्त्र, अंगराज, आभूषण और हार को उनकी प्रसन्नता का परम उपहार समझकर ले लिया। उस प्रमोपहार को सीताजी ने ग्रहण करके दोनों हाथ जोड़कर उन तपोघना अनसूयाजी की सेवा में बैठी रही।
तदनन्तर अपने निकट बैठी हुई सीता से अनसूयाजी ने कोई परम प्रिय कथा सुनाने के लिए इस प्रकार पूछना आरम्भ किया-
स्वयंवरे किल प्राप्ता त्वममेन यशस्विना।
राघवेणेति मे सीते कथा श्रुतिमुपागता।।
वाल्मीकिरामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग ११८-२४
सीते! इन यशस्वी राघवेन्द्र ने तुम्हें स्वयंवर में प्राप्त किया था, यह बात मेरे सुनने में आई।
मैं इस वृत्तान्त को विस्तार के साथ सुनना चाहती हूँ। अत: जो कुछ जिस प्रकार हुआ, वह बस पूर्णरूप से मुझे बताओ। अनसूयाजी की इस प्रकार आज्ञा सुनकर सीताजी ने कहा माताजी! सुनिये! इतना कहकर उन्होंने इस कथा को इस प्रकार बताया। मिथिला के वीर राजा जनक नाम से प्रसिद्ध हैं। वे धर्म के ज्ञाता हैं अत: क्षत्रियोचित कर्म में तत्पर रहकर न्यायपूर्वक पृथ्वी का पालन करते हैं। एक समय की बात है, वे यज्ञ के योग्य क्षेत्र को हाथ में हल लेकर जोत रहे थे। इसी समय मैं पृथ्वी को फाड़कर प्रकट हुई। इतने मात्र से ही मैं राजा जनक की पुत्री हुई। इतने में उनकी दृष्टि मेरे ऊपर पड़ी। मेरे सारे अंगों में धूल लिपटी हुई थी, इसलिए स्नेहवश उन्होंने स्वयं मुझे गोद में ले लिया और यह मेरी बेटी है। ऐसा कहकर मुझ पर अपने हृदय का सारा स्नेह उड़ेल दिया। इसी समय आकाशवाणी हुई- नरेश्वर! तुम्हारा कथन ठीक है। यह कन्या धर्मत: तुम्हारी ही पुत्री है।
उन्होंने रानी को मुझे दे दिया। उन स्नेहमयी महारानी ने मातृ समुचित मेरा लालन-पालन किया। जब पिता ने देखा। मेरी अवस्था विवाह के योग्य हो गई, तब उन्हें बड़ी चिन्ता हो गई। मुझे अयोनिजा कन्या समझकर वे भूपाल मेरे लिए योग्य और परम सुन्दर पति का विचार करने लगे किन्तु किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सके। उन महाराज के मन में एक दिन यह विचार उत्पन्न हुआ कि उन्हें पुत्री का स्वयंवर करना चाहिए।
महायज्ञे तदा तस्य वरूणेन महात्मना।
दत्तं धनुर्वरं प्रीत्या तूणी चाक्षय्यसायकौ।।
वाल्मीकिरामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग ११८-३९
उन्हीं दिनों उनके पास एक महान यज्ञ में प्रसन्न होकर महात्मा वरुण ने उन्हें एक श्रेष्ठ दिव्य धनुष तथा अक्षय बाणों से भरे हुए दो तरकस दिए थे।
वास्तव में यह शिवजी द्वारा दिया गया धनुष तथा तरकस थे। वह धनुष इतना भारी था कि मनुष्य पूरा प्रयत्न करने पर उसे हिला भी नहीं पाते थे। भूमण्डल के नरेश स्वप्न में भी उस धनुष को झुकाने (प्रत्यञ्चा चढ़ाने) में असमर्थ थे। उस धनुष को पाकर मेरे पिता ने भूमण्डल के राजाओं को आमंत्रित करके उन राजाओं के समूह में यह बात कही- जो मनुष्य इस धनुष को उठाकर इस पर प्रत्यञ्चा चढ़ा देगा। मेरी पुत्री उसी की पत्नी होगी। इसमें कोई संशय नहीं है। आमंत्रित राजा उसे उठाने में समर्थ न हो सके तब उसे प्रणाम करके चले गए। तदनन्तर विश्वामित्रजी के साथ श्रीराम-लक्ष्मण जनकजी के यज्ञ देखने आए। सीताजी ने कहा कि उनके पिता ने विश्वामित्रजी का आदर-सत्कार किया। तब विश्वामित्रजी ने मेरे पिता से कहा ये दोनों श्रीराम और लक्ष्मण महाराज दशरथजी के पुत्र हैं और आपके उस दिव्य धनुष का दर्शन करना चाहते हैं। आप वह देव (शिवजी) प्रदत्त धनुष श्रीराम को दिखाइए। पिताजी ने उस दिव्य धनुष को श्रीराम को दिखाया। महाबली और परम पराक्रमी श्रीराम ने पलक मारते-मारते उस धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी और उसे कान तक खींचा। वेगपूर्वक खींचते समय वह धनुष बीच में से ही टूट गया और उसके दो टुकड़े हो गए। यह देखकर मेरे सत्यप्रतिज्ञ पिता ने जल का उत्तम पात्र लेकर श्रीराम के हाथ में मुझे देने का उद्योग किया। तत्पश्चात् मेरे बूढ़े श्वसुर राजा दशरथजी की अनुमति लेकर पिताजी ने श्रीराम को मेरा दान (कन्यादान) कर दिया। उस लम्बी कथा को अनसूयाजी ने सुनकर सीताजी को अपनी दोनों भुजाओं से अंक में भर लिया और उनका मस्तक सूँघकर कहा-
व्यक्ताक्षरपदं चित्रं भाषितं मधुरं त्वया।
यथा स्वयंवरं वृत्तं तत् सर्वंच श्रुतं मया।।
वाल्मीकिरामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग ११९-२
बेटी सीता! तुमने सुस्पष्ट शब्दों में यह विचित्र एवं मधुर प्रसंग सुनाया। तुम्हारा स्वयंवर जिस प्रकार हुआ था। वह सब मैंने सुन लिया। सीते! अब रात हो गई। अत: अब जाओ मैं तुम्हें जाने की आज्ञा देती हूँ। बेटी सीता! पहले मेरी आँखों के सामने अपने आपको अलंकृत करो। इन दिव्य वस्त्र और आभूषणों को धारण करके इनसे सुशोभित हो मुझे प्रसन्न करो। यह सुनकर देवकन्या के समान सुन्दरी सीता ने उस समय उन वस्त्राभूषणों से अपना शृंगार किया और अनसूयाजी के चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम करके अनन्तर वे श्रीराम के सम्मुख चली गईं। यह देखकर श्रीरामजी को बड़ी प्रसन्नता हुई। सीताजी ने भी अनसूयाजी के हाथ से जिस प्रकार वस्त्र, आभूषण और हार आदि प्रेमोपहार का वृत्तांत श्रीरामजी से कह सुनाया। वह रात बीतने पर प्रात:काल श्रीराम ने लक्ष्मण-सीताजी सहित दण्डकारण्य में जाने के लिए चल दिए।
अनसूयाजी की दिव्य पवित्रता के ही कारण मुनि अत्रि का नाम प्रसिद्ध है। सीताजी का सारा आदर-सम्मान-सत्कार अनसूयाजी ने उनके मिलने पर किया जो कि इन बातों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है कि जीवन में सारी प्रतिष्ठा, मान, सम्मान उपलब्धि विजय और सफलता का आधार पुरुष की अपेक्षा नारी का व्यक्तित्व एवं कृत्तित्व होता है। पुरुष के जीवन में भौतिक, आध्यात्मिक, मानसिक जीवन की सफलता असफलता के पीछे नारी (स्त्री) की पवित्रता सेवाएँ, दृढ़निश्चयता, त्याग दूरदर्शिता आदि पर ही आश्रित रहती है। सती अनसूयाजी में ये सभी गुण विद्यमान थे।