भोपाल । विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली करारी मात के बाद आलाकमान ने जीतू पटवारी को प्रदेश की कमान सौंप दी है। उधर, प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद से ही पटवारी लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुट गए हैं। विधानसभा चुनाव की परीक्षा में फेल रही कांग्रेस के सामने अब लोकसभा का टेस्ट है। इस टेस्ट में बेहतर प्रदर्शन करने के लिए पटवारी ने पूरी तरह कमर कस तो ली है, लेकिन उनके सामने चुनौतियां भी कम नहीं हैं। सबसे बड़ी चुनौती नए और पुराने नेताओं में बैलेंस बनाना है, वहीं जिताऊ प्रत्याशी खोजना भी बड़ा चैलेंज है।
मप्र में कांग्रेस के लिए गुटबाजी सबसे बड़ी समस्या रही है। विधानसभा चुनाव में भी तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की तल्खी खुलकर सामने आई थी। विधानसभा चुनाव में हार के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने कमलनाथ की प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से छुट्टी कर दी। सूबे में संगठन की कमान जीतू पटवारी को सौंप दी। जीतू पटवारी की इमेज ऐसे नेता की है जो किसी गुट के नहीं हैं। जीतू की गिनती पार्टी के युवा नेताओं में होती है। पार्टी में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह, अजय सिंह राहुल, अरुण यादव जैसे पुराने कद्दावर भी हैं। ऐसे में नए और पुराने नेताओं के बीच बैलेंस बनाना भी कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती होगी।
कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती 29 लोकसभा सीटों वाले सूबे में सीटों की संख्या दो अंकों में ले जाने की है। पार्टी 2014 में जहां दो सीटें ही जीत सकी थी। वहीं, 2019 में महज एक सीट पर सिमट गई। कांग्रेस 2019 के चुनाव में छिंदवाड़ा सीट ही जीत सकी थी। हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे देखें तो कांग्रेस को 66 विधानसभा सीटों पर जीत मिली थी। लोकसभा सीट के लिहाज से देखें तो कांग्रेस करीब 10 लोकसभा क्षेत्रों में बढ़त बनाने में सफल रही थी। अब पार्टी के सामने लोकसभा चुनाव में यह बढ़त बनाए रखने की चुनौती होगी लेकिन सबसे अधिक मुश्किल टास्क कार्यकर्ताओं में जोश भरने को माना जा रहा है। विधानसभा चुनाव में बड़ी हार के बाद कांग्रेस कार्यकर्ताओं में फिर से जोश भरने का चैलेंज पार्टी के सामने होगा, साथ ही ऐसे मुद्दों की तलाश भी करनी होगी जो प्रभावी सिद्ध हो सके। जिस तरह से पीएम मोदी का नाम आगे कर भाजपा ने विधानसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत हासिल की है, जब चुनाव खुद मोदी से जुड़ा है तब कांग्रेस के लिए जिताऊ उम्मीदवारों की तलाश भी आसान नहीं। कांग्रेस ने उम्मीदवारों के चयन के लिए कमेटी बना दी है। कमेटी हर सीट से चार उम्मीदवारों के नाम तय करेगी और इसे शीर्ष नेतृत्व को भेजेगी। कहा जा रहा है कि इन्हीं चार में से किसी एक को लोकसभा चुनाव के लिए टिकट दिया जाएगा।
मध्य प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला रहता है। पिछले यानी 2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो भाजपा ने 58.5 फीसदी वोट शेयर के साथ सूबे की 29 में से 28 सीटें जीती थीं। वहीं, कांग्रेस 34.8 फीसदी वोट शेयर के साथ एक सीट ही जीत सकी थी। कांग्रेस और भाजपा के बीच करीब 24 फीसदी वोट का अंतर है। कांग्रेस के सामने वोट शेयर के लिहाज से ये बड़ा गैप भरने की चुनौती होगी ही, हर लोकसभा चुनाव में वोट शेयर गिरने का ट्रेंड बदलने का चैलेंज भी होगा। मध्य प्रदेश में पिछले 32 साल का चुनावी अतीत देखें तो कांग्रेस वोट शेयर के लिहाज से भाजपा के मुकाबले पिछड़ रही है। साल 1991 में कांग्रेस का वोट शेयर भाजपा के मुकाबले अधिक रहा था। तब कांग्रेस को 45 फीसदी वोट मिला था। भाजपा कांग्रेस के मुकाबले करीब तीन फीसदी कम 42 फीसदी वोट तक ही पहुंच सकी थी। यह गिरावट तब भी जारी रही जब सूबे में कांग्रेस की सरकार रही। 1996, 1998, 1999 और 2019 लोकसभा चुनाव के समय सूबे की सत्ता पर कांग्रेस ही काबिज थी लेकिन फिर भी भाजपा वोट शेयर के मामले में कहीं आगे रही थी।