डॉ० देवेंद्र दीपक    

इस शीर्षक को पढ़कर बहुत से लोग चौकेंगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ   के नित्य के विरोधी तो चौकेंगे ही,  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  को जानने वाले लोग भी चौकेगें। एक प्रसंग था जिसके कारण  इस लेख का यह शीर्षक बनना ही था।
    पं. बनारसी दास चतुर्वेदी हिन्दी पत्रकार जगत का एक बड़ा नाम है। वह राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रहे। सर‌कार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के परिवार के बीच उन्होंने सेतु का काम किया। निजी पत्रों के संग्रहकर्ता के रूप में हिंदी में उन जैसा कोई दूसरा व्यक्ति मेरे संज्ञान में तो नहीं है।
    पं. बनारसी दास चतुर्वेदी जी का एक लेख साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपा। उसमें उन्होंने विभिन्न संस्थाओं की हिंदी सेवा की विस्तार से चर्चा की। मैंने वह लेख पढ़ा और बतौर आपत्ति के मैंने  एक पत्र उन्हें  लिखा। पत्र  में   मैंने लिखा   कि आपने सब संस्थाओं के नाम लिए, लेकिन अहिंदी भाषी प्रदेश से जन्म लेने वाली और अहिंदी भाषी व्यकियों के नेतृत्व में  चलने  वाली संस्था रास्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, जिसका समूचा कार्य हिंदी में होता है, उसका आपने अपने लेख में उल्लेख नहीं किया।
    चतुर्वेदी जी की ईमानदारी देखिए। उन्होंने मुझे पत्र लिखा। मेरी आपत्ति को चूक माना। इस पत्र में लिखा एक वाक्य महत्वपूर्ण है- "राजनैतिक कारणों से ध्यान उधर नहीं जाता।" सोच-समझ से जुडे हम सबके लिए एक संकेत है इसमें और वह यह कि अनेक  बार राजनैतिक कारणों से बहुत कुछ अलक्षित रह जाता है। और यह भी कि ऐसा करना संगत नहीं है।
    राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ नागपुर में जन्मा और आज पूरे देश में, कहीं कहीं विदेश में भी, उसकी सक्रिय उप‌स्थिति है। संघ के संस्थापक डा० हेडगेवार मराठी भाषी थे । प्रो. रज्जू‌मैया को छोड़कर संघ के सभी सर संघचालक अहिंदी भाषी रहे हैं ।
    प्रारम्भ में विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने के लिए भेजे गये प्रचारक मराठी भाषी थे, अहिन्दी भाषी थे। हिंदीभाषी  प्रचारक अहिंदी भाषी क्षेत्र में, और अहिंदी भाषी प्रचारक हिन्दी भाषी क्षेत्र में! भाषा को लेकर संघ के कार्यकर्ताओं में कभी कोई टकराव नहीं हुआ। सब हिंदीमय होकर संगठन के काम में जुटे। इसके पीछे संघ की सोच थी--भारत की सभी भाषाएं अपनी है। लेकिन ?
    इस 'लेकिन' का गुरू जी ने उत्तर दिया-"अन्य भाषाओं का हिंदी  से कलह होने का कोई प्रश्न ही उद्‌भूत नही होता.... सम्पूिर्ण देश हमारा है.... इस देश की भाषाएं हमारी है, हमारे राष्ट्र की है। "सर्वप्रान्तीय भाषाएं यद्यपि समान हैं तो भी सार्वजनीक, सार्वदेशिक व राजकीय व्यवहार के लिए एक ही भाषा रहना आवश्यक है। यह भाषा सर्वाधिक विस्तृत, सहज तथा सर्वाधिक लोगों की समझ आनेवाली हिंदी ही हो सकती है। इसलिए हिन्दी को ही यह स्थान प्राप्त होना सुयोग्य है।"  आरम्भ से लेकर आज तक हिंदी  के प्रति  संघ की यही दृष्टि  रही  है। कोई  परिवर्तन  नहीं । 

     राजनैतिक पक्ष से जुड़े लोग तत्काल को देखकर अपने पैंतरें और तेवर बदलते दीखते हैं। भारत के राजनैतिक परिदृश्य में अनेक ऐसे दल हैं जो भाषा को लेकर अपनी स्टैंड बदलते रहे हैं। कभी हिंदी के प्रति प्रेम,  कभी हिंदी के सामने पीठ खड़ी कर लेते हैं। संघ का केन्द्रीय कार्यालय हिंदी में काम करता है। संघ के प्रचारक देश में जहां जाते हैं, हिंदी में भाषण देते हैं । जहां आवश्यकता होती है उनका अनुवाद सम्बन्धित भाषा में हो जाता है। अहिंदी भाषी मान्य सुदर्शन जी ने मुझे कई पत्र  लिखे । सब हिंदी  में । एक पत्र में उन्होंने  लिखा  "अहिंदी भाषी   संघ के तृतीय वर्ष के प्रशिक्षण में भागलेने वाले, प्रशिक्षणार्थियों के लिए हिंदी का एक संक्षिप्त वर्ग लगता है और ये अहिन्दी भाषी स्वयं सेवक हिंदी सीख लेते हैं।"
    गुरु जी जैसी धारा प्रवाह और शुद्ध हिन्दी में व्याख्यान देने की क्षमता हिंदी भाषी विद्वानों के लिए भी विरल है। अहिन्दी भाषी संघ के प्रचारकों को सुनिए। क्या शुद्ध भाषा !क्या प्रवाह! और घंटो उसी स्तर पर बोलने की क्षमता! एक बात और भी - संघ के प्रचारकों और अन्य कार्यकर्ताओं की भाषा संस्कृत निष्ठ और तत्सम प्रधान होती है। इस कारण उनके बौद्धिकों को दक्षिण भाषी लोगों के लिए समझना अपेक्षाकृत सरल होता है। संघ की मूलभूत विचारणा का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि शिक्षा का माध्यम मातृ भाषा होनी चाहिए।
     हिंदी भाषी प्रदेश में अंग्रेजी के प्रति व्यामोह कुछ ज्याकदा ही है। संघ की प्रेरणा से संचालित सरस्वती शिशु मंदिर योजना के अन्तर्गत विद्याभारती के विद्यालय पूरे भारत में चल रहे हैं। हिंदी भाषी क्षेत्र में हिंदी माध्यम से शिक्षा पर बल देने वाला विद्याभारती आज अकेला  स्वैच्छिक शैक्षिक संस्थान है। पूर्व में हिंदी माध्यम से शिक्षा देने के समर्थक अनेक संस्थानों ने अपनी भूमिका बदल ली। मैदान छोड़‌ गई। संघ के शिशु मंदिर अभी भी हिंदी का झ॔डा उठाए हुए हैं।
       उत्तर-पूर्व की आदिवासी बोलियां मिशन के प्रभाव से रोमन लिपि की ओर झुक रही है। संघ ने इस दिशा में प्रयास किए और प्रस्ताव रखा कि जिन आदिवासी बोलियों की अपनी नहीं लिपि नहीं है, वह रोमन के स्थान पर देवनागरी लिपि को अपनाएं। संघ परिवार की सेवा भारती, संस्कार भारती, संस्कृत भारती, उद्योग भारती, आरोग्य भारती आदि अनेक संस्थाएं हिंदी को केन्द्र में रखकर कार्यकरती हैं । संघ के अनेक आनुषंगिक संगठन अपने कार्य और विचार के लिए अनेक पत्र-पत्रिकाएं हिंदी  निकालते हैं। इनके पाठक लाखों की संख्या में हैं। उनके नाम देने के लिए यहां स्थान नहीं। अनेक प्रकाशन संस्थान हैं जो हिंदी  में अनेक ग्रन्थों का प्रकाशन राष्ट्रीय स्तर पर करते हैं। डा. देवेन्द्र दीपक की लिखी 'मातृ-भाषा और शिक्षा' कृति की छः लाख प्रतियां जनता के बीच गयी। यह कृति विद्या भारती की ओर से हिंदी में शिक्षा के आग्रह को जगाने की योजना केअंतर्गत  रची गयी ।               
    भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को प्रभाव में आया। हिन्दी को विश्व भाषा बनाने के प्रयास के रूप में विश्व हिंदी सम्मेलनों का सिलसिला बहुत देर से प्रारम्भ हुआ। पहला विश्व हिंदी सम्मेलन 12 जनवरी 1975 को नागपुर में हुआ।    यानि 25 वर्ष  बाद! इस सम्बन्ध में राष्ट्रीय स्वयं सेवक के द्वितीय सर संघचालक गुरु जी (माधव राव सदाशिव राव गोलवलकर ) का उल्लेख संघ विरोधियों की आंख खोलने वाला है।  02 मार्च 1950 को रोहतक (पूर्व में पंजाब और वर्तमान में हरियाणा) में प्रांतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन हुआ। इस अवसर पर गुरुजी का दिया भाषण महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा -- " हिंदी विषयक प्रस्ताव पारित कर घर बैठे तो कुछ नहीं होने वाला। हमें हिंदी को सच्चे अर्थ में सम्पन्न भाषा बनाना है। हिंदी के विषय में प्रखर स्वाभिमान की भावना जागृत करनी चाहिए। अपने कर्तृत्व से जगत की सर्वश्रेष्ठ भाषाओं में उसे सन्मान का स्थान करा देंगे ऐसा आत्मव विश्वास जगाना होगा।"
    आगे गुरुजी कहते हैं -- "'आखिर इंग्लिश सब जगत की भाषा कैसे बनी? उसका सर्वत्र हुआ प्रसार यह अंग्रेजों के  कर्तृत्व का ही फल है। हम ऐसा निश्चय करें कि हिंदी को केवल भारतवर्ष की ही नहीं, सम्पूर्ण जगत की भाषा बनाकर रहेंगे। अपने प्रयास से उसे ऐसी उर्जितावस्था प्राप्त करा देंगे कि जिससे अपने देश के ही नहीं तो सारे जगत के विद्वान हिंदी का अध्ययन गौरवास्पद मानेंगे। इस आत्मविश्वास से आगे बढें।"
    क्या करें? और कैसे करें? इस प्रश्न का समाधान भी गुरु जी ने राष्ट्र के सामने रखा-- "हिंदी को उस स्थान पर पहुंचाने के लिए प्रचण्ड कर्मशक्ति आवश्यक है। यह कार्य सबकी एकत्रित व संगठित शक्ति से ही सम्भव है।"  गुरुजी विश्वाकस दिलाते है - "इस दृष्टि से अपनी सब शक्ति इस कार्य में लगाकर हिंदी को उसका योग्य स्थान शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त करा देंगे।'"
    हिंदी को लेकर गुरुजी ने जो बात 1950 में कही, उस पर आज 2023  में  विचार करेंगे तो स्पष्ट होगा  कि कितने पहले  कितनी  स्पष्टता से गुरू जी ने हिंदी के विकास के लिए राष्ट्र का मार्गदर्शन किया था। एक पूरी कार्य योजना उन्होंने राष्ट्र के सामने रख दी थी। क्या‍ करना है, कैसे करना है और उसके लिए किस प्रकार की मानसिकता चाहिए, यह सब तो उन्होंने राष्ट्र के सामने रखा। खेद है कि राष्ट्र ने उनके आह्वान के महत्व  को नहीं समझा। देश की जनता और सत्ता दोनों ने हिंदी को लेकर जो कुछ किया, वह अनेक विकल्पों से अटा हुआ संकल्प था। गुरु  जी के  निर्देशानुसार  यदि  देश में  काम हुआ  होता  तो अब तक हिंदी  विश्व  भाषा  बन गयी होती ।
    12वां विश्व हिन्दी सम्मेलन फीजी  में होने जा रहा है। यह एक सच है कि  इस अवधि में हिंदी को लेकर जहाँ तक हमें पहुंच जाना चाहिए था, क्या उसके आस-पास भी पहुंचे। कभी चार कदम आगे, कभी  छ: कदम पीछे। हिंदी के विषय में गुरू जी जिस प्रखर स्वाभिमान की बात कहते हैं, आज  वैसी प्रखरता हम मे कहाँ?  आज देश का अमृतकाल है । इस अमृत काल में  हिंदी  का रथ तीव्र गति  से आगे  बढे, इसके  लिए  हमें  निष्ठा  के साथ गुरु जी के निर्देशों  को ध्यान में  रखकर  योजना पूर्वक समवेत  हो अहर्निश  कार्य करना होगा । हिंदी का स्वीकार अन्य भारतीय भाषाओं का नकार नहीं, यह  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  की दृष्टि है। इसीलिए संघ को अपने भाषिक मंतव्य और गंतव्य को लेकर कभी कोई दुविधा नहीं रही।  हिंदी  के  विकास  में ,उसके प्रयोग  और प्रसार  में योगदान की दृष्टि  से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  अनेक संस्थाओं  से बहुत  आगे है । मैंने  अपनी बात पं. बनारसी दास चतुर्वेदी  के लेख की  चर्चा से शुरू की थी, उसको सामने रखकर ही यह कहना चाहूँगा  --राजनैतिक कारणों से हम किसी के भी महत्वपूर्ण योगदान को अलक्षित न करें, फिर वह किसी का हो, किसी भी क्षेत्र का हो, किसी भी दिशा से आया हो।