मप्र के इस विधानसभा चुनाव में इस बार पहले से ज़्यादा कड़ी टक्कर होगी •पंकज पाठक•
ज्यों-की-त्यों धर दीन्हि चदरिया
कमान अब मोदी-शाह के हाथों में, कांग्रेस के लिए अवसर को भुनाना चुनौतीपूर्ण होगा
मध्य प्रदेश में अब यह सर्वविदित तथ्य स्थापित हो चुका है कि आगामी विधानसभा चुनाव (2023) में भारतीय जनता पार्टी सुविधाजनक के स्थिति में बिलकुल नहीं है। सार्वजनिक रूप से उसके नेता चाहे जो कहें, लेकिन अंदरूनी रूप से वे यह जानते हैं कि पिछली मर्तबा की तरह इस बार भी रास्ता काँटों से भरा हुआ है। याने पिछले विधानसभा चुनाव (2018) से इस विधानसभा चुनाव तक, इन पाँच वर्षों में भारतीय जनता पार्टी बहुत ही असुविधाजनक इस स्थिति में है। मध्य प्रदेश की राजनीति को गहराई से समझने वाले भी यह मान रहे हैं कि पिछले चुनाव से इस चुनाव तक प्रदेश में सत्ता विरोधी वातावरण (एंटी इनकंबेंसी) क़ायम है। इसके कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण तो यह कि गत 20 वर्षों में राज्य का विकास, जैसा होना चाहिए था, वैसा नहीं हुआ। 20 वर्षों का अरसा इतना बड़ा है कि इसमें एक प्रदेश विकसित होकर पूरे देश के सामने एक नज़ीर प्रस्तुत कर सकता है और पूरे देश की निगाहों में छा सकता है। यदि ऐसा होता, तो विरोधी भी इस उपलब्धि से इनकार नहीं कर सकते थे।
दूसरी बात, हिंदुत्व के लिए इस प्रदेश में कुछ ख़ास नहीं हुआ, सिवाए महाकाल लोक के। महाकाल लोक के निर्माण के बाद वहाँ जैसे ही आँधी चली, तो विनाश का दृश्य उपस्थित हो गया। इससे और उल्टा संदेश गया।हिंदूवादी वक्ता पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ स्वयं भोपाल आकर यह बोलकर गए हैं कि—“मामा कुछ तो ऐसा करो कि तुम्हें हिंदू याद रखें !” इसके अलावा भ्रष्टाचार भी मुद्दा है।2003 तो में भाजपा की सरकार बनने के बाद प्रशासन की शैली में भी कोई अंतर नहीं आया।बल्कि मुफ़्त की योजनाओं में मध्य प्रदेश ने देश में ऊँचा स्थान प्राप्त किया। इसे लेकर मध्यवर्गीय करदाताओं में बहुत रोष है, पर वे मन-मसोसकर रह जाते हैं।
यही नहीं, कोविड-19 की त्रासदी में लोगों ने जो पीड़ा झेली, वह अभी ख़त्म नहीं हुई है ।पिछला चुनाव हारने के बाद भाजपा ने जिस प्रकार से कांग्रेस से वापस सत्ता हासिल की, वह भी सत्तारूढ़ पार्टी के हित में नहीं है। सत्ता के लिए चाहे जैसे भी दलबदल किया जाए, संसदीय प्रजातंत्र और चुनाव के स्वच्छ तंत्र में उसे नैतिक नहीं कहा जा सकता। राजनीति में सेवा का भाव और नैतिक मूल्य सबसे ऊपर होते हैं, पर देश की कोई भी पार्टी इस लोकतंत्र में दूध की धुली नहीं है ।नगर पालिक निगम के चुनावों में भाजपा को ग्वालियर, जबलपुर और सिंगरौली जैसे क्षेत्रों में भारी पराजय का सामना करना पड़ा था।मतलब इससे जनता का रुख़ और संगठन की कमज़ोरी को समझा जा सकता है। पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के पुत्र पूर्व मंत्री दीपक जोशी को गुटीय राजनीति के कारण पार्टी छोड़कर कांग्रेस में जाना पड़ा।
पिछले विधानसभा चुनाव से मतदाता प्रदेश की भाजपा सरकार का नेतृत्व परिवर्तन चाहते थे। जब यह नहीं हुआ तो उन्होंने पिछले चुनाव में भाजपा को हरा दिया। लेकिन इसके बावजूद तब से अब तक, शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आरूढ़ हैं। लोग चाहते हैं कि अब वे किसी नए मुख्यमंत्री की शैली और भाव-भंगिमा को देखें। पर अभी तक यह अवसर नहीं आया है। बल्कि यह और स्पष्ट हो गया है कि शिवराज के नेतृत्व में ही चुनाव होगा। कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में भारी पराजय के बाद सबक़ लेते हुए भाजपा ने मध्य प्रदेश में रणनीति बदल दी है ।इस तरह वह भीतरघात होने की संभावना को ख़ारिज करना चाहती है ।परंतु मतदाताओं के मानस को भी भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने भाँप लिया है।यही कारण है कि पिछले दो महीनों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह लगातार मध्य प्रदेश का दौरा कर रहे हैं। अमित शाह ने तो एक तरह से मध्य प्रदेश के चुनाव की कमान ही अपने हाथों में ले ली है।मप्र सरकार के 20 साल का रिपोर्ट कार्ड प्रस्तुत करते हुए गत रविवार 20 अगस्त 2023 को भोपाल में उन्होंने जो वक्तव्य दिया, उससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि जीत की रणनीति पर हाईकमान पूरी ताक़त झोंक रहा है और उसे हर हाल में यह चुनाव जीतना है। और वह यह भी समझ रहा है कि स्थिति बहुत विकट है। इसीलिए मोदी-शाह ने मध्य प्रदेश का मोर्चा सँभाल लिया है और उसका असर भी दिखाई देने लगा है। उपरोक्त कार्यक्रम में अमित शाह की योद्धा-मुद्रा इसका प्रमाण है। उनके योद्धावतार का एक प्रमाण यह भी है कि उन्होंने पत्रकारों के साधारण-से सवालों के जवाब भी बेहद आक्रामक मुद्रा में दिए। मंच पर बैठे मुख्यमंत्री शिवराज और प्रदेश के गृह मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा अति- गंभीर मुद्रा में आ गए थे। किंतु प्रदेशाध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा सहज दिखाई दे रहे थे। शिवराज के भाषण में गत वर्षों का जोश-खरोश नदारद था और बहुचर्चित नाटकीयता भी किसी भी कोण से दिखाई नहीं दी।
यह समूचा परिदृश्य कमज़ोर हो चुकी कांग्रेस के लिए अत्यंत शुभ है । यहाँ दिग्विजय सिंह की एक टिप्पणी मौजूँ है, जिसका आशय है—“ इस बार नहीं, तो कभी नहीं !” पर भाजपा अपने प्रतिद्वंद्वी को लेकर संजीदा है ।अमित शाह ने अपने संबोधन में अनेक बार कमलनाथ का नाम लिया। कमलनाथ के साथ उन्होंने दिग्विजय सिंह का नाम मि. बंटाढार कहकर लिया, जिससे स्पष्ट होता है कि वे उन्हें काफ़ी गंभीरता से ले रहे हैं। जो ठीक भी है, क्योंकि कांग्रेस की स्थिति चाहे जैसी हो, वह अच्छी टक्कर दे सकती है। वैसे भी वह एकमात्र प्रमुख विपक्षी दल है और मध्यप्रदेश में 1990 के बाद से कांग्रेस और भाजपा में सीधी टक्कर हो रही है। यदि जनता का रुझान हुआ और भाजपा की कमज़ोरी बनी रही, तो यह स्थिति कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम कर सकती है।
लेकिन फिर से बाज़ी को अपने पक्ष में करना कांग्रेस के लिए इतना आसान भी नहीं है । वैसे भी पिछली बार कांग्रेस के पास कमज़ोर बहुमत था, उसी का फ़ायदा भाजपा ने उठाया था ।भाजपा हाईकमान ने पिछली गलतियों को नहीं दोहराकर इस बार प्रत्याशी की छवि के बजाए जीत की संभावना को एकमात्र मापदण्ड तय किया है और उस पर अमल भी प्रारंभ कर दिया है। यही कारण है कि भाजपा ने 102 पराजित सीटों में से 39 सीटों पर तीन महीने पहले ही प्रत्याशी घोषित कर सभी को चौंका दिया है और इन प्रत्याशियों के सामने जीत की चुनौती रख दी है । उधर कांग्रेस इतनी जल्दी प्रत्याशित घोषित कर ख़ुद ही अपना खेल नहीं बिगाड़ेगी।वह इत्मीनान से उम्मीदवार घोषित करेगी, ताकि असंतुष्टों को अधिक अवसर न मिल सके ।यों भी कांग्रेस में बहुत पहले सूची जारी करने की परंपरा नहीं है ।
(नवभारत, भोपाल से साभार)